अकथित रखी कई गुप्त व्यथा, छद्म हंसी होटों पर रख कर ।
प्रगाड बने जब पीड ह्रदय का, निकलें नीर नयन से निश्छल ।।
कब तक रख पता है मानुस, खामोशी अकुलित अधरों में ।
जब भी टूटे बांध धैर्य का, मौन मुखर हो जाते निश्चल ।।
प्रगतिशीलता की अग्नि से, अब धधक रही है धरा गर्भ में ।
प्रकृति संतुलन बनाने काँपे, भुवन भवन हो जाते समतल ।।
नदियां यूँ बहती जाती हैं, अपने अन्तहीन मंजिल तक ।
शेष नहीं मिलती वो अंत में, रह जता है सिंधु अविरल ।।
बस दीप नहीं डरता जलने से, जब भाग्य में बुझना लिक्खा है ।
इच्छा है कुछ ऐसे जी लूँ, मौत से पहले कर जग प्रज्ज्वल ।।
प्रगाड बने जब पीड ह्रदय का, निकलें नीर नयन से निश्छल ।।
कब तक रख पता है मानुस, खामोशी अकुलित अधरों में ।
जब भी टूटे बांध धैर्य का, मौन मुखर हो जाते निश्चल ।।
प्रगतिशीलता की अग्नि से, अब धधक रही है धरा गर्भ में ।
प्रकृति संतुलन बनाने काँपे, भुवन भवन हो जाते समतल ।।
नदियां यूँ बहती जाती हैं, अपने अन्तहीन मंजिल तक ।
शेष नहीं मिलती वो अंत में, रह जता है सिंधु अविरल ।।
बस दीप नहीं डरता जलने से, जब भाग्य में बुझना लिक्खा है ।
इच्छा है कुछ ऐसे जी लूँ, मौत से पहले कर जग प्रज्ज्वल ।।
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