Prose

इतनी मिलती है मेरे शेरों से सूरत तेरी
लोग तुझको मेरी महबूबा समझते होंगे


वो जो जन्नत--हूर का दर्जा देते हैं खुद को आज
ज़रा पूछिए कि कौन जानता था उनको मेरी मुहब्बत से पहले

इन राहों में इन बस्ती में अगर कोई जिंदा बचा है
तो बता दो उस इंसान की पहचान क्या है, फितरत क्या है
वो चलता है ज़मीन पे, या पावँ है उसके आसमाँ पर
उसका कोई खुदा है, या वो खुद का खुदा है

मैखाना नज़र करूँ के तुझे पैमाना--जाम नज़र करूँ
बन जाऊं मैं साकी--इश्क तुझपे इश्क का पैगाम नज़र करूँ

तू पीके भी ना बहका कि संभालू तुझको
मुझे बिन पीये ही संभलने की दरकार होती है

इस उदास ज़िन्दगी में भी खुशियाँ जाती
काश! देख लेती तू इक बार पलट के

कहते हैं वो की पीते हैं उदासी मिटाने को
हर घूंट की हंसी में हमने उन्हें रोते हुए देखा है

कैसे पढूं मैं आपके चेहरे पे लिखी ये दास्ताँ
जो सर झुका कर आपने जुल्फों को आगे कर दिया
अधखुली नज़रों में आपकी कैसी क़यामत थी छुपी
अलफ़ाज़ जो निशब्द थे गुमसुम लबों से कह दिया

रोने से क्या डरना जब दर्द ही ज़िन्दगी का पर्याय हो
खुश तो इस बात पे होना चाहिए की आंसू भी सूख जाते हैं

कहीं दिख परे दाग, सच आईने को तोरा
कैसे लिखूं मैं दर्द, दर्पण के बेबसी का
गैरों से क्या कहें जब अपनों ने साथ छोरा
किस किस के नाम लिख दूँ इलज़ाम बेरुखी का
मेरे आंसुओं से गल कर पन्ने तमाम गल गए
जो लिखने चले थे आज हम किताब ज़िन्दगी का

क्यूँ इस कदर खामोश हो, इतने दिनों से, बोल दो
उलझे हुए किस कश्मकश में, वो राज अपने खोल दो
शिकवे ग़मों को भूल कर, मेरी वफ़ा का मोल दो
जो अश्क पलकों पे रुकें, खुशियों में मेरे घोल दो

हाल जो पूछा मेरा उसने, तो बस पलकों को झुका दिया,
कुछ दिनों से पता नहीं हम, क्यूँ चुप चुप से रहते हैं
क्यूँ सिसक उठे जब ढके हुए सब घाव बदन के दिखा दिया,
लब पे झूठी मुस्कान लिए हम, किन किन जख्मों को सहते हैं

जो गुजरती नहीं है है वो शब जिन्दगी,
बेमजा और बेरंग अब जिन्दगी,
घेर रखा है खुशियों को तन्हाई ने,
जिनमे जुंबिश नहीं हैं वो लब जिन्दगी,
फूल को ओस से चोट लगने लगी,
सहमी-सहमी सी कितनी डरी जिन्दगी,
गर खुदा है कही तो ये सुन ले दुआ,
बक्श दे जिन्दगी को नयी जिन्दगी

आसमां में देख कर अब यही सोंचता हूँ
'कभी तू मेरा हद्द हुआ करता था'

यूँ मुस्कुराया करो बिजलियाँ गिरती हैं इस दिल पे
तुम तो बस कहर ढाते हो फिर से मुस्कुरा कर

आज पिने का मन हुआ तो हर जाम खाली है
सामने रखी वही धुल भरी पुराणी टूटी प्याली है
सुना हर किसी ने मेरी ग़ज़ल, पर समझा नहीं
तारीफ कर निकल गए सब, बस चुभती अब वो ताली है

वो जो एक मिसरा लिख दिया था कभी बेखुदी में कभी दिल्लगी में
उस ग़ज़ल की इब्तेदा भी तू थी और इन्तेहाँ भी तू है

एक दोस्त हंस कर चला गया मेरा ताओ देख कर
एक मासूम रो कर रह गया मेरा घाव देख कर

तम कहते हो की बेवजह ही अपने ग़म गिनवाते हो
जो दर्द को पीना जाता तो हम वली हो जाते

रात के पिछले पहर कर जगा देती है
याद तेरी तहज्जुद की अज़ान हो जैसे

बस इतनी सी हकीकत है, फरेब--ख्वाब--हस्ती की
आँखें बंद हों इक पल और आदमी अफसाना हो जाए

दुनिया किस नाम से जानेगी मुझे मेरे मरने के बाद
ज़िन्दगी की कशमकश में खुद गुमनाम हो गया हूँ

मैं वो फूल हूँ जो तुमने सदियों पहले किताब में रखा था
कभी दिल से पुराने पन्नों को पलटना, महक जाऊंगा

तुम अपनें चिरागों की हिफाज़त खुद किया करो
हवा तो फिर भी आवारा हुआ करती है

ज़ख्मों से इस कादिर छलनी है ये जिस्म
खुद दर्द भी परेशां है, कि उठूँ कहाँ से

जब चाहा जिंदगी को देखना करीब से,
मिलते रहे तजुर्बे हरदिन अजीब से

सही हैं वो तामीलें, या मेरी ज़िन्दगी की नुमाइश
यही सोंच मैं उलझा रहा उस नामी खतीब से।

बेतुल-खला से रही हैं तर्रनुम की आवाजें,
शायद से कोई मर्ज़--पेचिश से मुत्तलक़ है

ये भी मेरे ख्वाब की करवी हकीकत है
नींद तो आती है मगर सोना नहीं आता

फिर लहराएगा मेरा परचम अपनी मिजाज़ से
गोया, कई सल्तनतों का मैं गढ़ रह चूका हूँ

आगाह किया था तुझे नफरतें पालने से पहले
अब जो लावा उबला है तो जलजले भी देखो

सपनो के माफिक ज़िन्दगी भी काबिल--ऐतबार ना रही
कम्बखत अंजाम को पहुँच जाती है खुशियों के आगाज़ से पहले

ज़िन्दगी, तू भी बहुत अजीब रंग दिखाती है
कभी पलकों के नीचे तो कभी कोसों दूर नज़र आती है.

कुछ इस कदर तंग किया सूनेपन ने हमें
कि हमने खुद हीं दरवाज़े की ज़ंजीर बजा दी

दरिया की भी साँसे थम गयीं एक लम्हे की खातिर
सोंचा, कैसा इंसान है ये, डूबता है पर मदद नहीं मांगता

तुम बुझा कर जो चले हो यादों की चिरागें
क्या करोगे अगर रस्ते में शाम हो गयी

यूँ बेवजह ही जंग लरता हूँ दुनिया से हर रोज़
मेरी हालत का गुनेहगार भी मैं हूँ और मदाह भी

गर ना बदली ज़माने की ये ताजिराना रवायिश
कल गुल भी गुलिस्तां में खिलने का दाम मांगेंगे

हर रोज़ खिंचती हैं इतनी दीवारें यहाँ,
अब तो आँगन भी नज़र नहीं आता।

आतंकवादियों के असलहे क्या क़यामत लायेंगे यहाँ
घुन-दीमक की तरह कुर्सी से चिपके नेता हीं काफी हैं

कुछ इस कदर बदली हालात--मुल्क पछियारी हवाओं से
अब नेताओं की चांदी है, बदन पे खादी है और जेबों में गाँधी है

जिन तिरंगो को हमारे हांथों से लहराना था
देश के हर इक कोने में जा भारत-पर्व मनाना था
उन तिरंगो में आज शहीदों की लाशें लौट रही हैं
साथ हीं उनके तिरंगे की भी सांसे बुझ रही हैं

आब--हयात हीं क्यूँ ना हो नफरत के प्याले में
मेरी मानो, चंद लम्हों में वो भी ज़हरीला हो जायेगा

मैं डूब रहा था और हौसला ये भी था
पेशगी ले रहा था समंदर के मोतियो की

सियासत से मेरे यारों ज़रा तुम दूर हीं रहना
ये जिसके पास होती है, शराफ़त छीन लेती है

चंद सिक्कों की ज़रुरत और भूख की मार हीं है जिसके खातिर
वो खुद के बच्चे को रोता छोर, साहब के बच्चे को खिलाती है

गैरों के लफ़्ज़ों से कर मेरे क़िरदार का फ़ैसला
तेरा वज़ूद मिट जायेगा मेरी हक़ीक़त ढूँढते-ढूँढते

मत लड़ मेरी फकीरी से तू हार जायेगा
मैंने शहंशाहों के गिरते हुए ताव देखे हैं

शक था उसकी मौत की वजह भी हंसी हीं रही होगी
जोकर की डायरी से एक मुस्कराहट तक ना मिली

एक खौफ महसूस होती है इन दर--दीवार से
वो टूटी हवेली बेहतर थी, इस शीशे के मकान से

लाठी-डंडों से तो हड्डियां तोड़ी जाती हैं
दो लफ्ज़ हीं काफ़ी हैं रिश्ते तोड़ने कि ख़ातिर

नापसंदीदा हैं खैरात में मिली खुशियां मुझे
मैं रहता हूँ अपने ग़मों में नवाबों के माफ़िक।

शराफ़त इसमें नहीं की पत्नी पर फ़िदा है,
शराफ़त इसमें है की अपनी पर फ़िदा है।

पढने को शहर गए और ग़फ़लत में खुद भूल गए
माँ ने कितने जेवर बेचे, बाप ने कितनी ज़मीन।

कहीं एक दिन मरने की खातिर लोग पूरी ज़िन्दगी जीते हैं
कहीं एक इंसान फिर जीने को हर रोज़ नयी मौत मरता है।

सोंचता हूँ तक़दीर की तरफ़ खुद हीं बढ़कर देख लूँ
बहुत मुश्किल से सीखा है मंज़िल के पावं नहीं होते।

ये दुनिया जलाल--द्दीन का दरबार नही है
यहॉँ शौक़--खास दर्द--आम भी हो सकता है।

दर्द--हिज़्र की बात करते हैं वो
फरेब--वस्ल से नावाकिफ हैं जो।

हाकिम ने उसे इस बात पर फांसी दे दि
कि गरीब ने औलाद के नाम बड़े रखे थे।

अपनी बैचेनी का एक हिस्सा जलाया था कुछ देर पहले
लोगों को महज़ चिलम से निकलता धुंआ नज़र आया।

नसीहत मिली कि 'खुद को ढूंढने की जिर्रत करो',
मैंने कहा, 'गोया, खुद को ढूँढा नहीं बनाया जाता है'

जिसके जनाजे मे सारा शहर शरीक हुआ,
सुना हॆ वो शक्स तन्हाई के खौफ से मरा।

टपकते पानी से बिस्तर को बचाते, किसान बोला,
'थोड़ी और बारिश होती, तो फसल अच्छे हो जाते।'

नज़्मों के लफ़्ज़ों में कर रहा हूँ इन लम्हों की हिफाज़त,
मुदत्तों बाद जब कोई होगा, तब ये बहुत काम आएंगे।

आवारगी छोड दी हमने, तो लोग भुलने लगें है...
शोहरत कदम चूमती थी, जब बदनाम हुआ करते थे।

जी करता है किसी रोज़ अकेला पा कर,
मैं तुझे मार कर, तेरा मातम भी मनाऊं।

तुम्हे हो मुबारक शीश-महल,
हम अपनी चौपाल में खुश हैं

दूर रहते हैं इसलिए अब तक क़रीब है,
पास रहते तो फ़ासले हो भी सकते थे।

हालिये मरे बादशाह की ख्वाइश तब ख़ास से आम हो गयी,
ज्यों निगरान--कब्रिस्तान ने मुर्दे पे कफ़न ना-गिरामी दिया।

सही कहा था बुज़ुर्गों नें कि सब्र का फल मीठा होता है,
जल्दीबाज़ी में तो हमने बस लोगों को गिरते हुए देखा है।

रसोई के बर्तन कोने में सूखे पड़े रहे,
ज़िन्दगी जाने क्या कहानी पकाती रही।

सितारा अपनी ही हरारत से ख़ाक हो गया, 
और लोग उसे देखकर दुआ माँगने लगे।

अकेलेपन में सोचता हूँ बीती कहानियां आज भी, 
वो जिंदगी भर के वादे, और तोड़ने के रिवाज भी।

कोई तो चुप करवाए अब इन बादलो को,
गलती हो गई जो हम इंहेँ अपना दर्द सुना बेठे।

हम भी हैं उस ज़बान के शायर हमनफ़स,
ज़ुल्फ़ संवारी है जिसकी ग़ालिब--मीर ने।

नज़्मों के लफ़्ज़ों में कर रहा हूँ इन लम्हों की हिफाज़त,
मुदत्तों बाद जब कोई होगा, तब ये बहुत काम आएंगे।

क्या क़यामत है कि फ़ुरसतों में भी उल्झा है,
दिल हीं तो हैसमझा है ना कभीना सुलझा है।

दुश्मन कहीं साहिबे-किरदार होता तो फिर,
तलवार को हम अमन का परचम बना देते।

प्रारब्ध से जकड़ा हुआएक जिद्दी परिंदा हूँ,
उम्मीदो से घायल हूँउम्मीदों पर हीं जिंदा हूँ।

लोगों के मुट्ठियों में भरे नमक को देख,
हमने जख्म छुपाने का हुनर सीख लिया।





(last updated: November 30, 2015)

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