कितने अच्छे हम अपने गांव में थे।

कितने अच्छे हम अपने गांव में थे,
उन पत्तों और शाखों की ठंडी छाँव में थे।
सब मिल के पूजते थे राम-औ-रहीम को,
और शालीनता नदियों के निर्मल बहाव में थे।
उत्साह था डाक्टर-इंजीनियर बनने का,
तो हाँथ में बस्ते, टूटे चप्पल पांव में थे।
मुखिया जी की तूती बोलती थी चहुँ ओर,
फिर भी गली के राजा हम अपने ताव में थे।
शौक था हमें भी अंग्रेजी खाना चखने का,
पर असली मजा तो माँ के भूँजे पुलाव में थे।
ताकत की लड़ाई बाहुबलियों में होती थी,
और लोकतंत्रता के स्वाद पंचायती चुनाव में थे।
गुड्डे-गुड़ियों के झगडे होते थे आये दिन,
पर शायद हीं हम कभी किसी तनाव में थे।
आज भले हीं उड़ते हों हर रोज़ पुष्पक में,
तब खुश अपनी बनाई कागज़ की नाव में थे।
कितने अच्छे तब हम अपने गांव में थे।
उन पत्तों और शाखों की ठंडी छाँव में थे।।  

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