क्या दर्द अब मेरे कलम में रूह बन रहने लगा है?

किसको बताऊं बात ये, जो रश्मियों ने छल किया,
देखो तारा चाँद से, अब दूर क्यूँ रहने लगा है
भयभीत है जब खुद उजाला, बात हम किसकी करें
प्रीत जिससे थी ये रोशन, दीप वो बुझने लगा है
उसके आने की ख़ुशी, रोकूँ मैं कैसे कब तलक
बेसब्र हो चंचल ये मन, अब जाने क्यू चहकने लगा है
मेरे ख़ुशी के गीत में भी पीड के स्वर क्यूँ छुपे
दर्द शायद रूह का पर्याय बन रहने लगा है
क्या दर्द मेरी लेखनी की रूह में भी बसने लगा है?
क्या दर्द अब मेरे कलम में रूह बन रहने लगा है?

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