अन्नपूर्णा के दर्शन को
बीत गया था एक ज़माना
एक दाने को तरस रहा पर
जग जैसे सारा वीराना
मांस शरीर के सूख चुके थे
बचा सिर्फ कंकाल सा ढांचा
विवेकता भी शुन्य बची थी
था किस्मत का करा तमाचा
जाने क्या-क्या पाप किये
जो नीच जात में जनम मिला
दुत्कारा गया हर दर पर
मंदिर में भी न शरण मिला
'इस दीन-गरीब की बात तू सुन,
हे श्रृष्टि के पालनकर्ता.
जनम दिया जो इस भू पर,
फिर भूखा क्यूँ मरने देता?'
'खुद की दरिद्रता मिटती नहीं है,
कुल का बोझ किस कंधे उठाऊं.
दुत्कार भी नहीं सकता अपनों को,
तू हीं बता किस दर जाऊं?'
चार दिनों के भूख का मार
दिन-रात चिंता में रहता
'हाँ मैं हूँ किस्मत का हारा'
खुद से यह कहता रहता
अच्छे खाने की बात तो छोरो
जूठा भी नसीब न होता है
फेंके दाने को खा लेता था
पर अब कुत्तों से जंग होता है
प्यास का मारा दर-दर घुमा
कहीं मिला न पानी का मटका
समाज से मिले अपमान को पी
अब ज़िन्दगी और मौत में अटका
जीते-जी परिवार की खातिर
कुछ भी तो वो कर न सका
हाय रे फूटी किस्मत भिखारी
मर के भी तू कुछ कर न सका
लक्ष्मी मिली नहीं जीवन में
अर्थी कैसे पूत उठाये
डंसा उसे भी उसी सांप ने
चल दिया युवा झोली फैलाये
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